“Evidence is Knowledge and Knowledge is Evidence”
(सम्यग् ज्ञानम् प्रमाणम्)
गंधक जारित/जीर्ण पारद द्वारा असाध्य रोगो को साध्य बनाना
Posted by: Vaidya Balendu Prakash, 16 October, 2023
अखंड भारत के स्वर्णिम काल में पारद (Mercury) के ऊपर गहन अध्ययन एवं शोध के पश्चात रस शास्त्र का प्रादुर्भाव हुआ | जिसमे विषाक्त समझे जाने वाले पारद और खनिज धातुओं को संशोधन कर औषधि के रूप में बदलने की निर्माण प्रक्रिया को विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है | रस शास्त्र में पारद को भगवान शिव का स्वरुप माना गया है, तथा गंधक को देवी पार्वती का पर्याय बताया गया है | अलंकारिक भाषा में लिखे हुए रस शास्त्र में पारद और गंधक की अग्नि पर हुई जीर्ण अवस्था को रोगो को दूर करने के लिए अचूक उपाय बताया गया है | पारद में गंधक जाणा एक दुरूह प्रक्रिया है, जिसमे समय, धैर्य और संसाधन के साथ, एक अथक साधक की भी आवश्यकता होती है | पारद में निरंतर गंधक जारणा के फल स्वरुप पारद में धीरे-धीरे गंधक के जीर्ण होने की मात्रा बढ़ती जाती है, और उसी अनुपात में असाध्या रोगो को दूर करने की क्षमता भी | प्रस्तुत लेख में पारद में गंधक जारणा / जीर्ण के रहस्यों की संक्षिप्त विवेचना का वर्णन किया गया है |
परिचय:
बाल्य काल की मधुर स्मृतियों में एक स्मृति विशेष, पारद के साथ खेलने की है| एक ऐसा तरल पदार्थ जो बहता तो है पर गीला नहीं करता, बिखरने पर असंख्य टुकड़ों में टूट जाता है परंतु मिलने पर फिर तरल स्वरूप को प्राप्त होता है। दर्शन करने पर शीशे की तरह चमकता है और अपने स्वरूप का दर्शन भी देता है। रोजमर्रा कि यह क्रिया जीवन का अभिन्न हिस्सा थी क्योंकि पिताश्री स्वर्गीय वैद्य चंद्रप्रकाश जी एक सिद्धहस्त रस वैद्य थे, जो अपनी पत्नी और मेरी मां श्रीमती शशि मुखी के साथ रस शास्त्र की विभिन्न क्रियाओ को प्रत्यक्ष कर अनगिनत असाध्याय रोगों से पीड़ित रोगियों की सफल चिकित्सा कर चिकित्सा के क्षेत्र में एक नाम स्थापित कर सके थे।
यौवन काल में विज्ञान विषयों की पढ़ाई के साथ पिताश्री के चिकित्सा कार्यों में विशेषकर रस औषधि निर्माण संबंधी जिज्ञासा बढ़ती चली गई। बारंबार एक प्रश्न मस्तिष्क में कौंधता था कि दुनिया भर में विष के रूप में जाना जाने वाले पारद में आखिर क्या परिवर्तन आता है जो की असाध्य अवस्था में पहुंचे हुए मृतप्राय रोगियों को जीवन दान देता है। इसी जिज्ञासा से उत्पन्न हुआ विज्ञान में स्नातक की उपाधि लेने के बाद आयुर्वेदाचार्य बनने का सफर और अवसर मिला रस शास्त्र के ग्रंथो के अध्ययन का। सांकेतिक रूप में और कुछ घुमाव फिराव के साथ लिखे हुए रस शास्त्र में सब कुछ तो समाहित है। इस संदर्भ में पारद के विषय में उल्लेख करना प्रासंगिक है, क्योंकि पारद ही रस शास्त्र का मूल है।
आयुर्वेद के रस ग्रंथो में पारद को भगवान शिव का पर्याय वर्णित किया गया है और माता पार्वती को गंधक का पर्याय कहा गया है। जिस तरह सृष्टि में शिव और पार्वती के सहयोग से प्राणियों के प्रति करुणा भाव और सृजन शक्ति का उदय होता है। उसी प्रकार पारद और गंधक संरचना से रोग नाशक शक्तियों का उदय होता है। पारद को महाविष की संज्ञा देते हुए पारद के शोधन विशेषकर अष्टसंस्कार के विषय के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। इस तरह संस्कृत हुए पारद से देहवेध और धातुवेध की परिकल्पना की गई है। यही कारण है कि रस शास्त्र के अधिकांश जानकार पारद के संस्कार पर जोर देते हैं। रस्तरंगिणी के मूल पाठ में पारद के अष्ट संस्कार का वर्णन करने के बाद एक विस्मयकारी वक्तव्य का उल्लेख किया गया है, जिसका संबंध पारद में रोग नाशक शक्ति उत्पन्न करना है। ग्रंथकार ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि पारद चाहे हिंगुल से प्राप्त किया गया हो या अष्ट संस्कृत पारद हो, उसमें रोग नाशक शक्ति पैदा करने के लिए गंधक जारणा नितांत आवश्यक है। जिसके लिए कच्छप यंत्र का उल्लेख किया गया है और पारद के साथ 1000 गुनी गंधक जारना का वर्णन भी किया गया है। ग्रंथ के अगले भाग में पारद में गंधक जीर्ण करने की महत्ता बताई गई है जिसका वर्णन ग्रंथ में निम्न प्रकार से दिया गया है।
परंतु वास्तविकता में पारद के साथ गंधक जारणा कर गंधक जीर्ण की अवस्था कैसे प्राप्त होती है, इस संदर्भ में शास्त्र स्पष्ट नहीं है।
सत्तर के दशक में मेरठ निवासी स्वर्गीय वैद्य चंद्र प्रकाश जी ने स्वबुद्धि, विवेक एवं रसायन सार ग्रंथ के रचयिता आचार्य श्याम सुंदर वैश्य से प्रेरणा लेकर ताम्र और पारद के समास में पारद मारक गण की दो दिव्य औषधियों देवदाली और अपराजिता के साथ नलिका डमरू यंत्र का प्रयोग कर गंधक जारणा का अभिनव प्रयोग प्रारंभ किया। इस प्रयोग में प्रत्येक बार पारद के समान गंधक की मात्रा को लेकर मारक गण के द्रव्यों के साथ दृढ़ मर्दन किया गया फिर धूप में सुखाकर नलिका डमरू यंत्र में संधि बंधन कर लगभग 24 घंटे मृदु अग्नि दी गई। स्वांगशीत होने पर इसमें पुनः समान भाग गंधक डालकर मर्दन आदि कर जारणा की गई। इस प्रक्रिया को सौ बार दोहराया गया। देखने में आया कि धीरे–धीरे इस समास में गंधक की अग्नि सहने की क्षमता बढ़ने लगती है। जहां प्रारंभ में 24 घंटे की अग्नि से लगभग समस्त गंधक उड़ जाती है, वही आखिरी अवस्थाओं में 120 घंटे की निरंतर अग्नि के बाद भी एक निश्चित मात्रा के बाद गंधक उड़नी बंद हो जाती है। उक्त प्रयोग को अनेक बार करने के बाद ज्ञात हुआ कि इस प्रकार सौ गुनी गंधक जारना से पारद की मूल मात्रा से दुगनी गंधक इस योग में अग्नि सह होकर जीर्ण हो जाती है।
शास्त्र में वर्णित द्विगुण जरित पारद की महत्ता का बखान करते हुए बताया गया है कि यह महारोगों को जलाकर नष्ट कर देता है। उक्त वक्तव्य को भली भांति प्रत्यक्ष किया गया है कई महारोगों को समूल नष्ट करने में। इसका ज्वलंत एवं सजीव उदाहरण है, बार–बार होने वाला एक्यूट और क्रॉनिक पेनक्रिएटाइटिस (Pancreatitis) रोग की सफल एवं स्थाई चिकित्सा अमर नाम की औषधि द्वारा। जिसको ताम्र और पारद का समास बनाकर उसमें 100 गुनी गंधक जारना कर द्विगुण गंधक को जीर्ण किया गया है। एक्स आर डी द्वारा की गई जांच के विश्लेषण में ज्ञात होता है कि इस योग में कोई भी धातु मुक्त रूप में विद्यमान नहीं है, बल्कि यह एक बहु आयामी मिनरल्स का योग है। चूहों पर किए गए अध्ययन में इस योग द्वारा किसी प्रकार की विषाक्तता नहीं पाई गई है। विगत 25 वर्षों में पेनक्रिएटाइटिस के विभिन्न प्रकारों से ग्रसित लगभग 1800 रोगियों में इस योग को दिया जा चुका है।
आयुर्वेदिक चिकित्सा आहार, विहार और औषधि के सिद्धांत का पालन करते हुए यह देखा गया है कि लगभग 70 से 80% रोगी पेनक्रिएटाइटिस रोग से पूर्णत मुक्त हो जाते हैं। उनके आकस्मिक अटैक और आपात अस्पताल में भर्ती में एक वर्ष के आयुर्वेदिक इलाज के बाद 90 से 95% तक कमी आती है। लगभग 90% रोगियों को स्थाई लाभ होता है और जबकि 10% में रोग की पुर्नवृत्ति देखी गई है जो की पुनः आयुर्वेदिक चिकित्सा देने पर ठीक हो जाती है।
पेनक्रिएटाइटिस एक भयावह और जानलेवा रोग है, जिसका आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में लाक्षणिक चिकित्सा के अलावा कोई इलाज नहीं है। सख्त परहेज और पेनक्रिएटिक एंजाइम के सेवन के बावजूद रोग की तीव्रता बढ़ती जाती है और 10 वर्ष होते–होते लगभग 92% धीरे–धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। उक्त परिप्रेक्ष्य में मिट्टी के चूल्हों और हँड़ियों पर लड़कियों से पकाई हुई अमर निसंदेह मानवता के लिए एक वरदान से कम नहीं है।
पारद में अन्य धातु का सम्मिश्रण कर गंधक जारणा के सिद्धांत का पालन करते हुए तथा 16 से 64 गुनी गंधक जारित रस सिंदूर एवं सिद्ध मकरध्वज के निर्माण कर रोगियों में प्रयोग करने पर विलक्षण प्रभाव दृष्टिगत होते हैं। जिसके द्वारा चिकित्सक को आत्मिक प्रसन्नता, निज गौरव, सम्मान, यश और धन की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में पारद को गंधक जारणा की प्रक्रिया को एक अनुष्ठान के रूप में मानते हुए कहा गया है कि पारद में गंधक जारणा करने से हजार अश्वमेध यज्ञ के बराबर पुण्य प्राप्त होता है और यह सारे पापों के विनाश का कारण भी होता है। पारद में गंधक जारणा और षड्गुण गंधक जीर्ण का सिद्धांत रस शास्त्र के पठन–पाठन में उल्लेख किया जाता है। परंतु इसके व्यावहारिक पक्ष पर काफी कार्य करना अपेक्षित है। पेनक्रिएटाइटिस जैसे महा रोग की चिकित्सा में द्विगुण गंधक जीर्ण ताम्र पारद के समास के विलक्षण प्रभाव को देखते हुए गंधक जीर्ण पारद की अलौकिक शक्ति के पीछे के विज्ञान को जानना और जरूरी हो जाता है।
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