साल 2002 की बात है…
उधमपुर के हरिओम अग्रवाल, जो पेशे से बिजनेसमैन हैं और कैटल व पोल्ट्री फीड के सरकारी सप्लायर हैं, उस समय अपने काम और परिवार के बीच एक खुशहाल जिंदगी जी रहे थे। गर्मियों की छुट्टियों में वह अपने मामा के घर गए। हरिओम बताते हैं, “ज़िंदगी में सब कुछ खूबसूरत था। सुबह जल्दी उठना, परिवार के साथ नाश्ता करना, दिनभर काम में मसरूफ रहना, और शाम को दोस्तों के साथ हंसी-मजाक में दिन खत्म करना। तब तक न कोई बुरी आदत थी, न ही कोई बड़ा तनाव। लेकिन उस छुट्टी में ऐसा कुछ हुआ, जिसने मेरी पूरी जिंदगी बदल दी।”
एक दिन, गर्मी की धूप में कुछ समय बिताने के बाद हरिओम को अचानक पेट में ऐसा दर्द उठा, जैसे किसी ने चाकू घोंप दिया हो। वह याद करते हैं, “दर्द इतना तेज़ था कि मैं समझ ही नहीं पाया कि यह क्या हो रहा है। मैंने खुद को कभी इतना असहाय महसूस नहीं किया था।” स्थानीय डॉक्टर को दिखाया गया। जांच हुई, और बताया गया कि पेट में सूजन है। उन्हें तुरंत अस्पताल में भर्ती होना पड़ा।
“अस्पताल के बिस्तर पर लेटे-लेटे मैं बस यही सोचता रहा कि आखिर मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है। उस वक्त मुझे समझ आया कि जब शरीर कमजोर होता है, तो इंसान का मन भी हार मानने लगता है।” हरिओम को पंद्रह दिनों की दवाइयों के साथ घर भेज दिया गया। शुरुआत में ऐसा लगा कि सब ठीक हो गया है। लेकिन शायद, यह केवल तूफान से पहले की शांति थी।
पहला तूफान, लेकिन आखिरी नहीं…
साल 2006-07। हरिओम अपनी दिनचर्या में वापस लौट आए थे। बिजनेस में व्यस्त थे और परिवार के साथ खुश थे। लेकिन फिर, एक दिन वही दर्द वापस लौटा। इस बार यह और ज्यादा तीव्र था। वह कहते हैं, “दर्द ऐसा था कि मैं न खड़ा हो पा रहा था, न बैठ पा रहा था। मुझे लगा, शायद यह मेरा आखिरी दिन होगा।”
अमृत हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। डॉक्टरों ने कहा कि गॉल ब्लैडर निकालना होगा। ऑपरेशन हुआ और सबने राहत की सांस ली। लेकिन कुछ समय बाद, दर्द बार-बार लौटने लगा। हरिओम के शब्दों में, “यह दर्द सिर्फ मेरे शरीर को नहीं, बल्कि मेरे आत्मविश्वास और हिम्मत को भी चीरता जा रहा था। हर बार जब दर्द होता, तो लगता कि मैं कुछ खो रहा हूं। मेरा परिवार, जो हमेशा मुझे ताकत देता था, मेरी हालत देखकर परेशान हो जाता।”
ग़लत रिपोर्ट, टूटा भरोसा
हरिओम को फिर से दर्द उठने पर दिल्ली के गंगाराम हॉस्पिटल ले जाया गया। वह बताते हैं, “अमृत हॉस्पिटल में डॉक्टरों ने कहा था कि मेरी हालत बहुत गंभीर है। लेकिन दिल्ली पहुंचकर जांच हुई, तो पता चला कि सबकुछ सामान्य है। उस समय मुझे लगा, जैसे मेरे साथ किसी ने क्रूर मज़ाक किया हो।”
डिस्चार्ज होकर हरिओम घर लौटे। रास्ते में उन्होंने ढाबे का खाना खाया। अगली सुबह दर्द इतना बढ़ गया कि पेनकिलर भी बेअसर होने लगे। डॉक्टरों ने तब बताया कि तंदूरी रोटी पैनक्रियाटाइटिस के मरीज के लिए जहर जैसी है। हरिओम कहते हैं, “यह सुनकर मुझे झटका लगा। यह बात पहले क्यों नहीं बताई गई थी? उस समय लगा, जैसे मैं एक अंधेरे सुरंग में भटक रहा हूं, जहां से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है।”
निराशा से उम्मीद तक का सफर
हरिओम की हालत दिन-ब-दिन खराब होती गई। वह बताते हैं, “हर डेढ़-दो घंटे में मुझे पेनकिलर चाहिए होता था। मेरी हालत ऐसी थी कि मैं न बैठ पाता था, न काम कर पाता था। हर डॉक्टर ने जवाब दे दिया। जब डॉक्टर कहते कि इसका इलाज संभव नहीं है, तो मेरे अंदर का हौसला थोड़ा और टूट जाता।”
इसी दौरान, डॉक्टर सुशील टंडन ने आयुर्वेदिक इलाज की सलाह दी। उन्होंने देहरादून के वैद्य डॉ. वालेंदु प्रकाश का नाम सुझाया। हरिओम कहते हैं, “मैंने सोचा, जब एलोपैथी में कोई रास्ता नहीं है, तो आयुर्वेद को क्यों न आज़माया जाए। मैंने वैद्य जी से संपर्क किया। उन्होंने डाइट और दवाइयों का सख्त रूटीन दिया। मैंने इसे पूरी गंभीरता से फॉलो किया। पहली बार लगा कि मैं अंधेरे से बाहर निकल सकता हूं। धीरे-धीरे मेरी हालत में सुधार होने लगा।”
सीखी गई जिंदगी की सबसे बड़ी सीख
आज हरिओम पूरी तरह स्वस्थ हैं। वह कहते हैं, “इस बीमारी ने मुझे जिंदगी की अहमियत सिखाई। मैंने महसूस किया कि परिवार और दोस्तों का प्यार किसी भी दर्द को सहने की ताकत देता है। और सबसे बड़ी बात—सही मार्गदर्शन और अनुशासन के साथ आप किसी भी कठिनाई को पार कर सकते हैं।”
हरिओम की यह कहानी सिर्फ एक बीमारी से लड़ने की नहीं, बल्कि इंसानी जज्बे और हिम्मत की कहानी है। वह कहते हैं, “अगर आप किसी कठिनाई से गुजर रहे हैं, तो हार मत मानिए। अपने शरीर और मन की सुनिए, बुरी आदतों से दूर रहिए, और सही इलाज के लिए प्रयासरत रहिए। जीवन के हर पल को पूरी तरह जीना सीखिए।”
हरिओम की कहानी हमें यह सीख देती है कि जब इंसान के पास जज्बा और सही दिशा हो, तो अंधेरे में भी रोशनी का रास्ता मिल ही जाता है।