आयुर्वेद में “रसशास्त्र” एक खास शाखा है, जिसमें पारा जैसे शक्तिशाली खनिजों का औषधियों में उपयोग होता है। पुराने ग्रंथों में पारे की उत्पत्ति को शिव और पार्वती के दिव्य मिलन से जोड़ा गया है यानी यह सिर्फ एक धातु नहीं, बल्कि एक दिव्य, चमत्कारी तत्व है। लेकिन असल में, पारा ज़हरीला होता है और जब तक उसका ठीक से शोधन न किया जाए, तब तक वह दवा नहीं बन सकता।
यह कहानी है एक ऐसे बालक की, जिसने अपने पिता की औषधशाला में पारे से खेलते हुए बचपन बिताया। उसे पता था कि पारा ज़हर है, फिर भी उसके लिए यह जीवन का एक सामान्य हिस्सा था। यही अनुभव आगे चलकर उसकी पूरी जीवन-यात्रा का आधार बना।
पिता का प्रयोग और एक चमत्कारी ठीक होना
1970 के दशक में, उनके पिता ने ‘गंधक जारण’ नामक एक प्रयोग शुरू किया जिसमें गंधक को पारे के साथ जलाकर उसे रोग निवारक रूप में बदला जाता है। उसी दौरान पंजाब से एक युवक को PGI चंडीगढ़ से यह कहकर घर भेज दिया गया कि अब कुछ नहीं हो सकता; उसे एडवांस स्टेज का पैंक्रियाटिक कैंसर था।
संयोगवश वह युवक मेरठ स्थित उनके पिता के पास पहुंचा। गंभीर स्थिति देखकर, उनके पिता ने उस पर अपनी नई दवा आज़माई। 15 मिनट में युवक को राहत मिली उसने कहा कि अब दर्द नहीं है और भूख लग रही है। छह महीने बाद वही युवक 30 किलो वज़न बढ़ाकर पूरी तरह स्वस्थ लौट आया। इस घटना ने पूरे परिवार की दिशा बदल दी, और उनके पिता पैंक्रियाटाइटिस के इलाज के लिए प्रसिद्ध हो गए।
लेकिन यह सफलता दोहराई नहीं जा सकी। अगली बार जब उनके पिता ने वही दवा बनानी चाही, वह सफल नहीं हो पाए। सही तांबे की कमी ने उन्हें वर्षों तक परेशान किया, और 1984 में वे इस अधूरे काम को छोड़कर चल बसे।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दवाओं को दोहराना
पिता के निधन के बाद उनके बेटे, वैद्य बलेंदु प्रकाश, ने इस जिम्मेदारी को उठाया। उन्हें एहसास हुआ कि उनके पिता ने हड्डियों की टीबी और कैंसर जैसी बीमारियों का इलाज तो किया, लेकिन दवाएं हर बार एक जैसी नहीं बन पाती थीं। असली चाबी ‘प्रक्रिया की शुद्धता’ थी।
उन्होंने आधुनिक विज्ञान की मदद ली। 1990 के दशक में वे कैम्ब्रिज गए और एक ‘इमेज एनालाइज़र’ नामक मशीन देखी, जो औषधियों के कणों का आकार मापती थी। उन्हें पता चला कि वे खुद जो दवा पीसते थे, उसका आकार 5 माइक्रॉन से कम था, जबकि उनके कर्मचारी जो दवा पीसते थे, वह 11,000 माइक्रॉन तक थी यानी बहुत फर्क था। यही वजह थी कि दवा दोहराई नहीं जा पा रही थी।
वे वह मशीन भारत लाए और एक सख्त नियम बनाया जब तक दवा का कण आकार मानक के अनुसार न हो, वह अगले स्टेप पर नहीं जाएगी। इस वैज्ञानिक विधि ने प्राचीन रसशास्त्र को एक नई दिशा दी। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस जैसे संस्थानों ने भी यह प्रमाणित किया कि उनकी पैंक्रियाटाइटिस की दवा न केवल सुरक्षित है, बल्कि “पैंक्रियास को सुरक्षा देने वाली” है।
अधूरी रह गई दवा: वल्ली पानी और ब्लड कैंसर
वैद्य बलेंदु प्रकाश एक और दुर्लभ औषधि ‘वल्ली पानी’ की बात करते हैं, जिसे उनके पिता ने 1982 में रक्त कैंसर के इलाज में सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया था। लंदन और पाकिस्तान से आए कई गंभीर मरीज जिनमें एक बच्चा भी था जिसे दुनिया का चौथा ‘मेगाकैरियोब्लास्टिक ल्यूकेमिया’ केस माना गया सब ठीक हो गए।
दुर्भाग्यवश, वह औषधीय पौधा साल में सिर्फ एक बार आता था और जल्दी खराब हो जाता था। उनके पिता के निधन के बाद यह दवा दोबारा नहीं बन पाई। आज भी वैद्य प्रकाश की यह आशा है कि एक दिन आधुनिक कोल्ड स्टोरेज तकनीक की मदद से वह वल्ली पानी को फिर से जीवित कर सकेंगे ताकि 40 दिनों में ही रक्त कैंसर का इलाज संभव हो सके।
यह सिर्फ दवा नहीं, एक परिवार की साधना है
यह कहानी सिर्फ औषधियों की नहीं है, बल्कि एक पिता-पुत्र की विरासत की भी है। यह दिखाती है कि कैसे प्राचीन ज्ञान और आधुनिक विज्ञान मिलकर ऐसी दवाएं बना सकते हैं, जो न सिर्फ असरदार हों, बल्कि हर बार एक जैसी, भरोसेमंद और सुरक्षित भी हों।
यह ज्ञान, एक मिशन और मानवता के लिए एक अनुपम उपहार है।